अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा की सैटेलाइट एक्वा ने हाल ही में कुछ तस्वीरें कैप्चर की हैं, जो काफी डरावनी हैं। इन तस्वीरों में अमेरिका के पूर्वोत्तर राज्यों और कनाडा के कुछ हिस्सों में भारी बर्फबारी और बादल की संभावना जताई गई है। दरअसल चक्रवाती तूफान ‘बम’ भारी बर्फबारी व बारिश से कहर बरपाता है। इस तूफान को सदी का सबसे खतरनाक तूफान करार दिया गया है। साधारण शब्दों में कहें, तो जलवायु संकट की वजह से साल 2022 में आपदाएं चरम पर रही हैं। यह सकंट पर्यावरणविद और वैज्ञानिकों के अनुमान से कहीं ज्यादा भयानक रहा है। साल 2022 में अनुमान से ज्यादा भयावह प्राकृतिक आपदाएं देखने को मिली है, जो आने वाले दिनों के लिए साफ संदेश है कि भविष्य में हमें खतरनाक प्राकृतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
अगर बीते साल की प्राकृतिक आपताओं की बात की जाएं, तो इस साल अंटार्कटिका में ग्लेशियर का पिघलना पूरी दुनिया के लिए चिंता का सबब है। भीषण गर्मी, जंगलों में आग, सूखा और बाढ़ कई देशों में बर्बादी लेकर आई। यूरोप को ग्लेशियरों के टूटने की घटनाओं का सामना करना पड़ा है तो अमेजन के जंगल भीषण आगे की चपेट में आ गये। अमेरिका, स्पेन और चीनं में गर्मियों में तापमान में भारी इजाफा दर्ज किया गया और इन देशों कों हीट वेव की समस्या से जूझना पड़ा है। ये जलवायु परिवर्तन के खतरे के कुछ संकेत हैं, जिन्हें गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है।
अगर दक्षिण एशिया की बात की जाएं, तो भारत और पाकिस्तानं को खतरनाक बाढ़ के हालात का सामना करना पड़ा है। इससे इन देशों को जान-माल का बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। बहुत से परिवार विस्थापन को विवश हुए। भयंकर गर्मी और हीट वेव की समस्या हर साल बढ़ती जा रहा है। अफ्रीकी महाद्वीप के सोमालिया में सूखे और नाइजीरिया में बाढ़ का भयावह असर रहा है। साल 2022 में सर्दी, गर्मी और बरसात की घटनाओं में तीव्र बदलाव देखे गए हैं।
प्राकृतिक आपदाओं और जलवायु परिवर्तन के पीछे पृथ्वी के बढ़ते तापमान को वजह माना जा रहा है। अनुमान है कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान की मुख्य वजह जीवाश्म ईंधन है। जीवाश्व ईंधन का पृथ्वी के बढ़ते ताममान में 80 फीसद योगदान है। वही पृथ्वी के तापमान के बढने में 15 फीसद योगदान पशओं और खेती को माना जा रहा है। जैसे-जैसे नॉन रिन्यूबल एनर्जी पर निर्भरता बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे पृथ्वी का तापमान तेजी से बढ़ेगा और जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ता जाएगा। विश्व मौसम विज्ञान संगठन एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन का हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन तथा शरीर पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। यह प्रभाव हमारे अनुमान से कहीं ज्यादा बुरा हो सकता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रीनहाउस गैस की सघनता रिकॉर्ड उच्च स्तर तक बढ़ रही है और जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन की दर महामारी के पहले के स्तर से ज्यादा हो गई है। इसका मतलब है कि पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट के साल 2030 तक कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के लक्ष्य में ज्यादा वक्त लग सकता है। पृथ्वी के तापमान को साल 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस कम करने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन अब इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए सात गुना ज्यादा वक्त लग सकता है।
अब क्या हो सकता है?
वैश्विक स्तर पर जलवायु संकट के तत्काल प्रभाव से निपटने के लिए दबाव बढ़ा, तब यूनाइटेड नेशन्स बॉयोडायर्सिटी कॉन्फ्रेंस COP15 ने ग्लोबल स्तर पर लैंडमार्क एक्शन के लिए ग्लोबल एक्शन गाइडलाइन जारी की। कुनमिंग-मॉन्ट्रियल ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क (GBF) में बायोडायवर्सिटी और ईकोसिस्टम की बर्बादी को रोकने के लिए स्वदेशी अधिकारों की रक्षा की बात कही गई। मतलब साल 2030 तक पृथ्वी के बर्बाद ईकोसिस्टम को 30 फीसद तक सुधारने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए जरूरी है कि फंड की कमी आ आए। साथ ही ग्लोबल इन्वायरमेंट फैसिलिटी और स्पेशल ट्रस्ट की तरफ से समय पर फंड जारी करने होंगे।
जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य को पूरा करने की राह में कई अन्य बड़ी समस्याएं हैं। मसलन, इसके लिए पैसा किन देशों से आएगा? और जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा किन देशों को फायदा होगा? इस मामले में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। वहीं, दुनिया भर के तमाम देशों को जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता को कम करना है। साल 2020 में जलवायु परिवर्तन के लिए फंड की कमी आड़े आयी थी। इस साल विकासशील देशों के लिए 100 मिलियन डॉलर के खर्च का अनुमान रखा गया। लेकिन इसमें 17 मिलियन डॉलर की कमी रही।
आईपीसीसी की 6वीं एसेसमेंट रिपोर्ट बताती है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की वजह विकास, असमानता, सामाजिक और आर्थिक पैटर्न रहे हैं। वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन योजनाओं को स्वीकार करने में में काफी कमियां रही हं। जिसकी वजह से क्लाइमेट एक्शन प्लान पर समयबद्ध तरीके से काम नहीं हो रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक, गर्वनेंस और इंस्टीट्यूशनल फ्रेमवर्क में कमियां हैं, जिसकी वजह से नीतियोें को स्पष्ट लक्ष्यो हासिल करने के लिए लागू नहीं किया गया है। इसलिए जरूरी है कि स्थायी जलवायु अनुकूलन योजनाओं को सफल बनाने के लिए मजबूत और तत्काल गठबंधन बनाना होगा। जिससे आगे आने वाली चुनौतियों से उबरने निपटने की राह तैयार की जा सके। इसमें निवेश और इनोवेशन की भी जरूरत होगी।
जंगलों को बचाना जरूरी
जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए सभी देशों को जंगलों को बचाने पर ध्यान देना चाहिए। इसमें सबसे ज्यादा पूर्वी हिमालय के भू-भाग पर ध्यान देना चाहिए। जंगलों को बचाकर ग्लोबल स्तर पर कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाया जा सकता है। आईपीसीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, जंगलों के जरिए एक तिहाई कार्बन उत्सर्जन पर रोक लगाई जा सकती है। हालांकि, पारंपरिक और अस्थिर कृषि पैटर्न और भूमि निकासी मानव निर्मित जीएचजी उत्सर्जन के लगभग एक चौथाई के लिए जिम्मेदार हैं।
इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (FSI) के अनुसार, साल 2010-2020 के दौरान भारत के वन क्षेत्र में हर साल औसतन 2,66,00 हेक्टेयर का इजाफा हुआ है। हालांकि, पर्यावरण विशेषज्ञ इन आंकड़ों पर सवाल उठाते हैं क्योंकि जंगल की गणना में मोनोकल्चर वृक्षारोपण और बागों को शामिल किया गया है, जो गलत है। 10 फीसद से ज्यादा कैनोपी घनत्व के साथ एक हेक्टेयर या उससे ज्यादा को जंगल कहा जाता है।
भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुसार, पूर्वोत्तर भारत देश के वन क्षेत्र का 23.75 प्रतिशत है जो पिछले कुछ वर्षों में 1020 वर्ग किलोमीटर जंगल खो चुका है। पूर्वोत्तर में वनों की संख्या लगातार कम हो रही है। पिछले 10 सालों में इसमें करीब 25000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वनों का नुकसान हुआ है। भारत के पूर्वोत्तर राज्यों की कई देशों जैसे बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार, चीन, नेपाल के साथ सीमाएं हैं। इन इलाकों में तेजी से हो रहे विकास और आर्थिक गतिविधियों की वजह से पर्यावरण को भयंकर खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। ऐसे में इन इलाकों के लिए जलवायु कार्य योजनाएं जरूरी हो जाती हैं।
(लेखक जाने-माने सामाजिक उद्यमी और बालीपारा फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं जो पूर्वोत्तर भारत में स्थानीय समुदाय आधारित कृषि वानिकी और जैविक खेती को बढ़ावा दे रहा है)
