भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र अपने घने जंगलों और जैव-विविधता के लिए जाना जाता है। देश में सबसे ज्यादा वनस्पति और जीव-जंतु देश के इसी भू-भाग में पाए जाते हैं। यह क्षेत्र खेती के लिहाज से भी काफी महत्वपूर्ण है। पूर्वोत्तर भारत की करीब 70 फीसदी आबादी का मुख्य रोजगार खेती है। यहां के करीब 80 फीसद किसान छोटे या सीमांत जोत वाले हैं, जो पैदावार की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण है। प्राकृतिक आपदाओं से फसलों की तबाही भी पूर्वोत्तर भारत की एक बड़ी समस्या है। इन विपरीत परिस्थितियों की वजह से यहां के ज्यादातर किसान कम आय में जीवन यापन करने को मजबूर हैं।
पूर्वोत्तर भारत में खेती की उपज कम है। इसलिए ये राज्य खाद्य वस्तुओं के लिए देश के अन्य राज्यों या विदेशी आयात पर निर्भर हैं। इसी कारण इन इलाकों में खाद्य वस्तुओं की कीमतें भी ज्यादा हैं। जिससे लोगों में पोषण की कमी देखी जाती है। नेशनल हेल्थ सर्वे के 5वें संस्करण की रिपोर्ट में साल 2019-2020 के आंकड़ों के हवाले से असम के 6 से 13 साल के करीब 8 फीसदी बच्चों को पर्याप्त पोषक आहार न मिलने पाने की बात सामने आयी है। साथ ही मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा और नागालैंड में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में ठिगनापन भी बढ़ गया है। यह ट्रेंड 15 साल में पहली बार इस इलाके में देखा गया था। इसका सीधा संबंध खाद्य असुरक्षा और गरीबी से है। जिसका समाधान कृषि वानिकी में देखा जा रहा है।
भारत सरकार एग्रो फॉरेस्ट्री यानी कृषि वानिकी की दिशा में तेजी से कदम बढ़ा रही है। प्रचलित औद्योगिक कृषि में रासायनिक खेती और मोनोकल्चर प्लांटिंग पर जोर दिया जाता है, जो मिट्टी और जैव विविधता के लिए नुकसानदेह है। जबकि कृषि वानिकी औसतन 34% अधिक कार्बन को मिट्टी में मिलाती है। इसमें उर्वरकों की जरूरत भी कम पड़ती है क्योंकि पूरक प्राकृतिक फसलें और प्रणालियां प्राकृतिक रूप से मिट्टी को पोषण देती हैं।

कृषि वानिकी का खाद्य वन मॉडल
स्थानीय परिस्थितियों और किसानों की जरूरत को ध्यान में रखते हुए कृषि वानिकी के कई मॉडल विकसित किए गये हैं। वैज्ञानिक रूप से विकसित ‘खाद्य वन’ कृषि वानिकी का ऐसा ही मॉडल है। इसमें फसल चक्र को कुछ इस तरह से अपनाया जाता है, जिससे पोषक तत्वों को मिट्टी में वापस लाने में मदद मिलती है और पानी की भी बचत होती है। कृषि वानिकी के इस मॉडल में बाजार की मांग को पूरा करने वाली फसलों को प्राथमिकता दी जाती है, ताकी किसानों को उनकी उपज का सही दाम मिल सके।
समुदाय आधारित पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में सक्रिय संस्था बालीपारा फाउंडेशन द्वारा रूरल फ्यूचर्स कार्यक्रम के तहत असम के सोनितपुर जिले में कृषि वानिकी यह मॉडल अपनाया गया, जिसमें किसानों की खाली पड़ी जमीन पर खाद्य वन विकसित किए गए हैं। कृषि वानिकी की इस पद्धति में कम देखभाल की आवश्यकता वाले 7-8 तरह के पेड़-पौधे उगाये जाते हैं, जो अच्छी आमदनी देते हैं। एक बीघा जमीन में किसान काली मिर्च और अदरक जैसी नकदी फसलों के साथ-साथ कद्दू, मोरिंगा, पपीता, नींबू, हल्दी और शकरकंद जैसे पौष्टिक खाद्य उत्पाद देने वाले पौधे उगा सकते हैं। ऐसे अनुभव हैं कि कृषि वानिकी की मदद से किसानों की आय 40 फीसदी तक बढ़ सकती है। जिन समुदायों के साथ हम काम करते हैं, वहां कृषि वानिकी में ग्रामीणों ने अतिरिक्त आय अर्जित की।
कृषि वानिकी में विविधता
विशेषज्ञों की मानें तो खेत की मिट्टी, क्षेत्र की जलवायु और बाजार की मांग के हिसाब से फसल का चुनाव करना चाहिए। साथ ही फसल कटाई से लेकर प्रसंस्करण का पुख्ता इंतजाम जरूरी हो जाता है। जिससे पैदावार के बाद फसल को देश-विदेश के बाजारों में पहुंचाया जा सके।
पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न जलवायु और खास भौगोलिक परिस्थितियां हैं। इसलिए कृषि वानिकी में भी अंतर है। उदाहरण के तौर पर, मणिपुर के योंगचक में किसानों के साथ मिलकर शुरू की गई कृषि वानिकी से शकरकंद, कद्दू, ककड़ी, मकई जैसी फसलों के उत्पादन को बढ़ावा दिया गया। साथ ही मोरिंगा, नींबू, पपीता, राजा मिर्च, हल्दी, अदरक और काली मिर्च को कुछ चुनिंदा इलाकों में उगाया गया। नागालैंड के जुन्हेबोटो में कॉफी का उत्पादन किया गया। किसानों की मदद से अलग-अलग जलवायु परिस्थितियों में अलग-अलग फसलें उगाई गईं। इसमें बागवानी फसलों जैसे अनार, पपीता, नींबू, राजा मिर्च, अदरक, हल्दी और गाजर को भी शामिल किया गया।
एग्रो फॉरेस्ट यानी कृषि वानिकी को अपनाकर किसान की आय में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हो सकती है। COVID-19 महामारी के दौरान शहरों से गांव लौटने वाले प्रवासियों ने कृषि वानिकी को आमदनी के विकल्प के तौर पर देखने लगे हैं। विश्व स्तर पर भी एग्रो फोरेस्ट्री काफी टिकाऊ है। केंद्र सरकार ने भी वर्ष 2022-23 के बजट में जैविक खेती, कृषि वानिकी और निजी वानिकी के विस्तार पर जोर दिया है।
निवेश बढ़ाना जरूरी
कृषि वानिकी को बढ़ावा देने के लिए निवेश बढ़ाने करने की जरूरत है। साथ ही फसलों के मूल्य समर्थन मूल्य को बढ़ाने की आवश्यकता है। सब्सिडी को स्थानीय परिस्थितियों और किसानों की जरूरतों के मुताबिक देना होगा। स्वदेशी और स्थानीय फसलों को उन्नत करने और किसानों के लिए मजबूत फसल बीमा तंत्र प्रदान करने की भी आवश्यकता है। स्थानीय उत्पादों की पैकेजिंग, ब्रांडिंग पर ध्यान देने की जरूरत है। इस दौरान इस बात का ध्यान भी रखना होगा कि कृषि वानिकी कभी भी प्राकृतिक वनों की जगह नहीं ले सकती है।
कुल मिलाकर कृषि वानिकी से ना सिर्फ जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं, बल्कि ग्रामीण युवाओं के लिए नए, बेहतर और टिकाऊ रोजगार पैदा कर सकते हैं। इसके लिए कृषि वानिकी को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
(लेखक जाने-माने सामाजिक उद्यमी और बालीपारा फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं जो पूर्वोत्तर भारत में स्थानीय समुदाय आधारित कृषि वानिकी और जैविक खेती को बढ़ावा दे रहा है)
